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केजरीवाल को मिली शानदार सफलता, लेकिन सामने आ रहीं आप की ‘कमजोरियां’

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साल 2022 में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के कई सपने साकार हुए। नवंबर 2012 में गठित आम आदमी पार्टी ने अपनी स्थापना के 10वें वर्ष में ही राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनने का गौरव हासिल कर लिया। इससे अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका निभाने के सपने को मजबूती मिलेगी और वे 2024 में बेहतर दावेदारी करने के योग्य होंगे। लेकिन इस साल ने आम आदमी पार्टी की कुछ बड़ी कमजोरियों की ओर इशारा भी कर दिया है। यदि उसने इन कमजोरियों से छुटकारा नहीं पाया तो उसके भविष्य पर ग्रहण भी लग सकता है। आम आदमी पार्टी ने साल की शुरुआत में ही बड़ी सफलता हासिल की। पार्टी ने दिल्ली के बाहर पंजाब पर भी अपनी जबरदस्त पकड़ बनाई और राजनीतिक पंडितों को अपने बारे में किए जा रहे आकलन पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया। पार्टी का दिल्ली मॉडल पंजाब में भी सफल होता दिखाई पड़ा। उसने कांग्रेस, अकाली दल और भाजपा को जबरदस्त पटखनी देते हुए पंजाब की 117 सदस्यीय विधानसभा में 92 सीटें जीतीं। साल के अंत में पार्टी ने दिल्ली नगर निगम का चुनाव पूर्ण बहुमत के साथ जीत लिया। 250 सीटों वाले नगर निगम में आप ने 134 सीटें हासिल कीं, जबकि 15 साल से सत्ता में रही भाजपा केवल 104 सीटों पर ही सिमट कर रह गई। इससे दिल्ली पर आम आदमी पार्टी की पकड़ मजबूत हुई है। अब अरविंद केजरीवाल दिल्ली को अपनी इच्छा के अनुसार बदल सकते हैं। केजरीवाल दिल्ली को सिंगापुर और पेरिस जैसा बेहतर बनाने का दावा करते रहे हैं। अब जबकि दिल्ली सरकार और नगर निगम दोनों में उनका पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो चुका है, वे अपने मॉडल को अच्छी तरह लागू कर सकते हैं। यदि वाकई उन्होंने दिल्ली को एक बेहतर स्वरूप देने में सफलता पा ली, तो इससे उनके विकासवादी मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर चमक मिलेगी और यह आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय संभावनाओं को मजबूत करने का काम करेगा। लेकिन इसमें असफलता हाथ लगने पर उनकी छवि खराब होगी और इससे केजरीवाल के दिल्ली-पंजाब तक सिमट कर रह जाने का खतरा बढ़ जाएगा। अब आम आदमी पार्टी की बड़ी कमजोरियां सामने आने लगी हैं। आम आदमी पार्टी अब तक केवल मुफ्त बिजली-पानी और बेहतर शिक्षा-स्वास्थ्य मॉडल के बल पर आगे बढ़ती रही है। लेकिन गुजरात, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और गोवा विधानसभा चुनाव परिणाम ने बता दिया है कि यह मुद्दा लोगों के बीच उतना असरकारी नहीं साबित हुआ, जितनी कि इसकी अपेक्षा की जा रही थी। गुजरात विधानसभा चुनाव में बड़े दावों के बाद भी पार्टी पांच सीटों से आगे नहीं बढ़ पाई और उत्तराखंड-हिमाचल प्रदेश ने बता दिया कि उसके पास लोगों का दिल जीतने का कोई बड़ा कारण नहीं है। राजनीतिक विश्लेषक सुनील पांडेय ने अमर उजाला से कहा कि भारत में सामाजिक आधार किसी राजनीतिक पार्टी के ‘प्राण’ होते हैं। वह किसी सामाजिक आधार के सहारे पैदा होती है और अन्य विकासवादी मुद्दों के साथ दूसरे वर्गों को जोड़ते हुए आगे बढ़ती है। लेकिन आम आदमी पार्टी के साथ कोई सामाजिक आधार नहीं जुड़ा है, यही कारण है कि उसका कोई परंपरागत वोटर नहीं विकसित हो पाया है। इससे उसके एक सीमा से आगे बढ़ने की संभावना कमजोर हो गई है। हिमाचल प्रदेश में पार्टी की पूरी यूनिट भाजपा में शामिल हो गई, तो उत्तराखंड में उसके मुख्यमंत्री पद के चेहरे रहे पूर्व कर्नल अजय कोठियाल भी भाजपा में शामिल हो गए। यदि पार्टी का कोई सामाजिक आधार होता, तो इतनी बड़ी मात्रा में नेता पाला नहीं बदलते। इन नेताओं के पाला बदलने से राज्य का पार्टी में सूपड़ा साफ हो जाता है। इससे पार्टी  को हर अगले चुनाव में शू्न्य से शुरुआत करनी पड़ेगी जो उसे स्थायित्व नहीं लेने देगा। अरविंद केजरीवाल के आंदोलन के साथी धीरे-धीरे उनसे दूर होते चले गए। इससे वे पार्टी में एकछत्र शासन करने वाले तो बन गए, लेकिन गुजरात-दिल्ली नगर निगम का चुनाव एक साथ आने से यह भी साबित हो गया कि उसके पास बड़े स्टार नेताओं की कमी है। यदि उसके पास कुमार विश्वास और आशुतोष जैसे नेता होते, तो वह अपनी बात ज्यादा मजबूती के साथ लोगों के बीच रख पाती। राजनीतिक पंडित मानते हैं कि केजरीवाल को बड़ी पारी खेलने के लिए लोगों को साथ लेकर चलना सीखना पड़ेगा। वे अकेले दम पर आम आदमी पार्टी को लंबे समय तक नहीं खींच सकते।

मुद्दों में भटकाव

दिल्ली नगर निगम चुनाव में आम आदमी पार्टी को जीत तो जरूर मिली, लेकिन उसके लिए खतरे की घंटी भी बजा दी है। इस नगर निगम चुनाव में ही यह बात भी सामने आई है कि मुसलमान मतदाता अब दोबारा कांग्रेस की ओर रुख करने लगे हैं। केजरीवाल ने एक रणनीति के अंतर्गत स्वयं को ज्यादा बड़ा हिंदू नेता साबित करने की कोशिश की है। उन्होंने गुजरात चुनाव में बिल्किस बानो प्रकरण पर भी कठोर रुख नहीं अपनाया। उन पर कोरोना काल में भी तब्लीगी जमात के लोगों को कोरोना फैलाने का जिम्मेदार बताने के आरोप हैं। माना जाता है कि इन्हीं कारणों से मुसलमान मतदाता आम आदमी पार्टी से खिसक रहा है। चूंकि, कांग्रेस के दलित-मुसलमान मतदाता ही केजरीवाल के साथ जुड़कर उनकी ताकत बन गए थे, यदि यह वर्ग उनसे पूरी तरह दूर हो जाता है, तो आम आदमी पार्टी के आगे बढ़ने की संभावनाओं को बड़ा झटका लग सकता है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को मिल रही मजबूती भी केजरीवाल की राह में बड़े रोड़े पैदा कर सकती है। यही कारण है कि राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि पार्टी को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।

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