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मुख रुपी द्वार का द्वारपाल हरि नाम है। गुरु आज्ञा दे, तो समजना- जनमों की साधनाका हिस्सा तुम्हें दे दिया

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(पांचवा दिन)
पतित पावनी गंगा के तट पर स्थित, पावन आश्रम में – आचार्य महामंडलेश्वरजी की आशीर्वादक छाया में – “मानस हरिद्वार” कथा चल रही है। पांचवे दिन की कथा में प्रवेश करते हुए पूज्य बापू ने कहा कि हरि स्वयं अनंत है, और हरि की कथा भी अनंत है। ऐसा संत गण कहते भी है, सुनते भी है। और सब को इस बात की प्रतीति भी है। तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसके विचार निर्मल है, वह कभी इस बात पर आश्चर्य नहीं जताते।
तुलसीजी कहते हैं कि “जिस प्रकार भवानीने प्रश्न किए, और जिस प्रकार महादेवजी ने उसे कथा सुनाई, ऐसी अति विचित्र कथा को मैं आपके सामने पेश करूंगा। ज्ञानी लोग कथा सुनते हैं, और कथा की अनंतता के बारे में उनको कोई आश्चर्य नहीं होता।“
परमात्मा के नाना प्रकार के अवतार है। क्योंकि शतकोटी रामायण है। एक कल्प में राम जन्म होता है, और इसके मुख्य पात्र भी हर कल्प में मिलते हैं। उन सभी की अनगिनत कथाएं है।
बापू ने कहा कि ” शास्त्र विधान है कि जो पुत्र न हो, जो शिष्य न हो, और जो शांत न हो – उन तीनों को वक्ता कथा नहीं सुना सकता। पर मैं आप सबको “बाप”कहता हूँ। और हमारे सौराष्ट्र की बोली में ‘बाप’ का एक अर्थ बेटा है। इसलिए आप सब कथा के अधिकारी बन जाते हैं। मेरा शिष्य तो कोई है ही नहीं। मेरे तो सभी ‘फ्लावर्स’ है। और मेरे दादाजी के अलावा मेरा कोई गुरु नहीं है।”
ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि “शिष्य को गुरु के माध्यम से ही परमात्मा तक जाना चाहिए। आपने यहाँ तक कह दिया, कि ‘गुरु ही परमात्मा है।’ – इसलिए तो हम गुरु को
“साक्षात् परब्रह्म” कहते हैं। हम सब किसी न किसी गुरु के आश्रित है। अगर कोई व्यक्ति नहीं, तो कोई सदग्रंथ अपना गुरु है। रामचरितमानस भी “हरिद्वार” हैं। सवाल अटूट भरोसे का है। शास्त्र हमारा गुरु हो सकता है। ठाकुर के शब्दों में – “इष्ट ही खुद अपना गुरु बनकर आता है।”
बापू ने अद्भुत चिंतन प्रस्तुत करते हुए कहा, कि अगर पांच वस्तु को स्वीकारने की हमारी तैयारी हो जाए, और इस स्वीकार के बाद गुरु की आंख भीग जाएं, तो समझना हमारे इष्ट ही गुरु बन कर आये है।
सबसे पहली बात- “आज्ञा पालन।” तुलसीदासजी कहते है
आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसाद जन पावई देवा।।
बुद्ध पुरुष की आज्ञा का पालन ही बुद्ध पुरुष की सबसे बड़ी सेवा है! गुरु कभी आदेश नहीं करते, लेकिन गोस्वामी जी कहते हैं कि – “आज्ञा तो गुरु के द्वारा दिया गया प्रसाद है। जिसे अपना बुद्ध पुरुष कोई आज्ञा दें, तो समझ लेना कि जन्म जन्म की साधना का हिस्सा वह हमें प्रसाद के रूप में दे रहा है!
प्रसाद चोरी करके नहीं पाया जाता, छीन कर नहीं लिया जाता, पैसों से खरीदा नहीं जाता, न ही मांगा जाता है! प्रसाद तो – “जन पावै देवा।” – यानी कि “वह जब दें, तभी हम पा सकते हैं।”
सूफी संत परंपरा के एक साधक शिबली और आपके गुरु जुनैद का बहुत ही रसप्रद किस्सा बापू ने सुनाया। गुरु जो भी आज्ञा देता है, शिबली उसका पालन करता है।और आखिर में गुरु जुनैद उसे आज्ञा देते है कि- “तू यहाँ से चला जा। क्यों बार-बार आता है?”
गुरु की इस आज्ञा को भी शिबली स्विकार कर लेता है, और वहाँ से निकल जाता है। तब गुरु की आंखें भर आती है, और वह शिबली को अपने पास बुला लेते हैं। शिबली के सारे द्वंद्व मिट जाते हैं। शिबली का आखिरी संदेश था – “जो साधु चिर शांति में रहता है, उसको चिराग की जरूरत नहीं।”
बापू ने कहा कि जो निरंतर शांत हो, उसके घर में शांति का उजाला होता है।
बापू ने कहा कि गुरु से कुछ मांगना नहीं पड़ता। बिन मांगे ही मिल जाता है। हम क्यों गुरु को अल्पज्ञ समझते हैं? क्या उसको पता नहीं? क्या वह केवल पोथी पंडित है? नहीं, वह तो शब्दातीत है- सर्वज्ञ है। तो, आज्ञा पालन सबसे पहला सूत्र है।
और कोई गुरु अगर आज्ञा नहीं देते, तो दूसरी बात है – संज्ञा पालन।
अपने बुद्ध पुरुष की आंख से, या उसकी बॉडी लैंग्वेज पर से साधक गुरु की इच्छा को समझ लेता है। और उसी हिसाब से कर्म करता है। यह संज्ञा पालन है।
तीसरा सूत्र है – यज्ञापालन। ‘यज्ञा’ माने यज्ञ की भस्म। हम यज्ञ की भस्म का पालन करें। हमारी साधना पद्धति में पांचों तत्तवों को भस्म माना गया है। अस्तित्व का निरंतर- प्रचंड, यज्ञ चल रहा है। उस की भस्म हो जाओ। अस्तित्व मय हो जाओ। भीतर तो यहपंच तत्व है ही, तु ईसे ही अपना वसन बना ले।
चौथा सूत्र है – “सर्वज्ञापालन” – अपने सद्गुरु को कभी भी अल्पज्ञ न समझे। वह सर्वज्ञ है। गुरु की सर्वज्ञता का प्रचार न करें, पर हम उसे समझने में चूक भी न करें।
और पांचवा सूत्र है -“अवज्ञा ना करें।” गुरु कि कहीं अवज्ञा ना हो जाए! कहीं चूक ना हो जाए- इस बात का ख्याल रखें।
पूज्य बापू ने कहा कि १०८ उपनिषद में से एक का नाम है – कृष्णोपनिषद। बहुत छोटा सा है। भगवान राम वनवास के दौरान चित्रकूट में बसें है।तब ऋषि मुनी देव आदि आकर कहते है कि-” प्रभु! आप मर्यादा पुरुषोत्तम बनकर आए, इसलिए हम नृत्य का आनंद नहीं ले पाते। आपको आश्लेष में नहीं ले पाते। आप को गले नहीं लग सकते। इस बात की हमेंउपीडा है। तब रामजी उन सब को कहते है कि -” “इसके लिए आपको कृष्णावतार तक राह देखनी पड़ेगी। मगर तब आप इस रुप में मुजे नहीं मिलोगे। आप को गोपीयां बन कर आना होगा!”
कृष्णोपनिषद में लिखा है कि – “भगवान राम ने कृष्ण के रुप में अवतार धारण किया, तब वह वैकुंठ से भूमि का टुकडा अपने साथ लेकर आयें। वह टुकडा ‘गोकुल वन’ है।परमात्मा आनंद स्वरुप है।आनंद स्वयं नंद बाबा बनकर आए। बुद्धि साक्षात यशोदा बनकर आई। नखशीख दया की मूर्ति देवकी है। नारदजी सुदामा बनकर आए।और स्वयं कलियुगने कंस बन कर जन्म लिया।वसुदेव स्वयं वेद है, बलराम और कृष्ण दोनों – वेद का तत्वार्थ है।
कलियुग की व्याख्या देते हुए बापू ने कहा कि – “जब कोई भजनानंदी साधु अपनी मस्ती में भजन कर रहा हो, और हमें लगे कि यह दंभ कर रहा है! – तब समझना कि कलियुग आ गया।”
कोरोना का बढता हुआ कहर देखकर बापू ने अपने सभी श्रोताओं से अनुरोध किया, कि इस के बाद रामपरा – राजुला में जो कथा होने जा रही है, उस छह दिनों में वहाँ किसी को भी आना नहीं है। सिर्फ राजुला के अगल बगल के देहातों से कुछ आमंत्रित श्रोताओं को ही पांडाल में आना है। विदेश के ही नहीं, देश के किसी भी प्रांत से भी कोइ न आये।महुवा या तलगाजरडा से भी कोइ न आयें। अगर हालात सही नहीं रहें, तो कथा बंध भी रखनी पडें। या फिर पांच-पंद्रह श्रोताओं के सामने कथा गान करेंगे।
कोरोना से सावधानी बरतने की बापुने सभी को अपील की। बापू ने कहा कि “पुरा देश अनिश्चितता में जी रहा है, तब हम भी हमारा उत्तर दायित्व नीभाऐं। पुरी तरह से सतर्कता रखें और सभी नियमों का पालन करें।”
कथा के चिंतन में आज बापूने कहा कि – “मुख रूपी द्वार का द्वारपाल हरिनाम है। हमारे मुख के उपर का ओष्ठ ‘र’ कार है, और नीचे का ओष्ठ ‘म’ कार है। मुख जब राम नाम जपे, तब समजना कि द्वारपाल अपनी डयूटी निभा रहा है।”
कथा के क्रम में आज मा भवानी भगवान शिवजी से राम कथा के श्रवण के लिए जिज्ञासा करती है। तब भगवान भवानीजी को रामजन्म की कथा सुनाते है।
हरिद्वार में राम जन्म की सब को बधाईयां देते हुए, पूज्य बापू ने आजकी कथा को विराम दिया।

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