शिवसेना के क़द्दावर नेता एकनाथ शिंदे को महाराष्ट्र में मचे सियासी तूफ़ान के बीच इस बात का बखूबी अंदाज़ा है कि इस पूरे प्रकरण में कमजोर कड़ी कौन है और किस कड़ी को मज़बूती से पकड़ करके आगे बढ़ना है। शायद यही वजह है कि कमजोर कड़ी के तौर पर उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे पर एकनाथ शिंदे हमलावर हुए। जबकी मज़बूत कड़ी के तौर पर उन्होंने शिवसेना के बाला साहेब ठाकरे के हिंदुत्ववादी एजेंडे को अपनाए रखा। क्योंकि शिंदे को पता है कि उनका राजनीतिक भविष्य किसी दूसरे दल के साथ शायद उतना मजबूती से आगे न बढ़ सके, जितना कि शिवसेना के साथ। इसीलिए वह बाला साहब ठाकरे के हिंदुत्ववादी एजेंडे को आगे कर ठाकरे परिवार को बाहर का रास्ता दिखाकर सत्ता के सिंहासन पर काबिज होना चाहते हैं।
महाआघाड़ी गठबंधन के चलते हिंदुत्व से भटकी पार्टी
महाराष्ट्र में शिवसेना के पूर्व विधायक जगन लालेराव पवार कहते हैं कि महाराष्ट्र में जो भी सियासी तूफान आया है उसकी सबसे बड़ी वजह शिवसेना का कमजोर नेतृत्व है। यह कमजोर नेतृत्व शिवसेना का बाला साहब ठाकरे के बाद एक उपजे गैप की वजह से हुआ है। उनका कहना है कि शिवसेना हिंदुत्ववादी एजेंडा खुल कर ही आगे चल रही थी, लेकिन महाआघाड़ी गठबंधन के साथ पार्टी अपनी विचारधारा से भटक गई। यही वजह रही कि हिंदुत्ववादी एजेंडे को सबसे आगे लेकर चलने वाली राजनीतिक पार्टी में न सिर्फ अलगाव शुरू हुआ, बल्कि इतने बड़े विरोध और पार्टी की टूट का बीज भी पड़ गया। पूर्व विधायक कहते हैं कि एकनाथ शिंदे को इस बात का बखूबी अंदाजा है कि अगर वह भाजपा के साथ मिलते हैं तो उनका राजनीतिक भविष्य उतना चमकदार नहीं होगा, जितना कि शिवसेना के साथ चलकर उनकी ही हिंदुत्ववादी एजेंडे वाली राजनीति को आगे बढ़ाने से होगा।
बाला साहब ठाकरे की जय बोल शिंदे ने किया खेल
राजनीतिक विश्लेषक तरूण शितोले कहते हैं कि एकनाथ शिंदे शिवसेना की विचारधारा और शिवसेना के नाम से मिलती-जुलती कोई पार्टी बनाकर एक बड़े जनसमर्थन को महाराष्ट्र में हासिल कर सकते हैं। दूसरा रास्ता यह है कि वर्तमान शिवसेना के नेतृत्व को हटाकर खुद उस पर काबिज हो जाएं। हालांकि शितोले कहते हैं कि दूसरा रास्ता न सिर्फ कठिन है बल्कि बहुत मुश्किलों भरा है। ऐसे में एकनाथ शिंदे ने अभी से शिवसेना के कद्दावर नेता रहे बाला साहब ठाकरे की हिंदुत्ववादी नीतियों को आगे बढ़ा कर न सिर्फ उनकी जय-जयकार कर रहे हैं बल्कि भरी बैठक में उनके नारे भी लगाए जा रहे हैं। उनका कहना है ऐसा करके महाराष्ट्र में ज्यादा से ज्यादा लोगों के समर्थन लेने का यह एक बहुत बड़ा जरिया भी है। वह कहते हैं कि महाराष्ट्र में शिव सैनिकों का एक धड़ा बहुत उग्र माना जाता है। खासतौर से जब उनके नेतृत्व पर कोई हमलावर होता है। लेकिन उनका कहना है इस पूरे घटनाक्रम के दौरान उस तरीके की उग्रता महाराष्ट्र में नहीं देखने को मिली है। शितोले कहते हैं कि इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि शिवसेना नेतृत्व को लेकर फिर पार्टी के विधायकों में ही नाराजगी नहीं है, बल्कि लोगों ने भी इस बात को लेकर विरोध पनप रहा है। वह कहते हैं कि एकनाथ शिंदे जनता की इस नब्ज को बखूबी समझ रहे हैं। और यही वजह है कि वह उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे को तो निशाने पर ले रहे हैं, लेकिन बाला साहब ठाकरे के सम्मान में कोई कमी नहीं आने दे रहे हैं।
उद्धव की राजनीति से पार्टी में पड़ी फूट
महाराष्ट्र की राजनीतिक पर बारीक नजर रखने वाले विश्लेषकों का कहना है कि इस घटनाक्रम का अंजाम क्या होगा, यह तो अभी तय नहीं है। लेकिन एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है कि जिस तरीके से बाला साहब ठाकरे राजनीति करते थे वह अब नहीं चलने वाली है। राजनीतिक विश्लेषक जेएस वाड़वालकर कहते हैं कि उद्धव ठाकरे ने बाला साहब ठाकरे के अंदाज में ही राजनीति को आगे बढ़ाने की कोशिश की। उस कोशिश का यह नतीजा रहा कि पार्टी के अंदर न सिर्फ फूट पड़ी, बल्कि पार्टी अलगाव के रास्ते पर भी पहुंच गई। वह कहते हैं कि रही सही कसर शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन करके पूरी कर ली। विश्लेषकों का मानना है कि जिस शिवसेना की नींव हिंदुत्ववादी एजेंडे के नाम पर पड़ी थी, उसी का विरोध करने वालों के साथ जब पार्टी ने सत्ता में रहने का संकल्प लिया तभी से विरोध और अंदरखाने नाराजगी नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक में होने लगी थी। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि उद्धव ठाकरे इस बात को समझ तो जरूर रहे थे लेकिन वह इसमें चूक करते गए। और आज के हालात उसी चूक की वजह से बने हैं।