नई दिल्ली
किसानों के लिए बने जिन कानूनों को मोदी सरकार को वापस लेना पड़ा, उससे कई तरह के सबक सीखने को मिलते हैं। पहला सबक तो खुद पीएम मोदी ने सीखा है, जब उन्होंने यह स्वीकार किया कि उनकी सरकार इस कानून के फायदे लोगों को समझाने में फेल हो गई। इकनॉमिक रिफॉर्म से हमेशा कुछ लोगों का फायदा होता है तो कुछ को नुकसान। किसान कानून के मामले में बड़े किसानों को नुकसान हो सकता था, जिन्हें एमएसपी की सुरक्षा हाथ से जाने का डर लग रहा था।
वहीं दूसरी ओर इस कानून से बड़ी संख्या में आम जनता को फायदा होता। जनता को साफ वातावरण मिलता और साथ ही खाने-पीने के सामान भी सस्ते मिलते। ऐसा इसलिए क्योंकि फिर लोग सिर्फ अनाज की खेती ना कर के कैश क्रॉप भी उगाते। इतना ही नहीं, एमएसपी में दिए जाने वाले पैसों का अन्य चीजों जैसे स्वास्थ्य और शिक्षा आदि में इस्तेमाल होता, जिससे भी आम जनता को काफी फायदा मिलता। बात सिर्फ थ्योरी की करें तो अगर जीतने वालों की संख्या हारने वालों से बहुत अधिक होती है तो ऐसी पॉलिसी को लागू हो जाना चाहिए। हालांकि, हकीकत में ऐसा बहुत ही कम हो पाता है। ऐसी पॉलिसीज की राह में गलत जानकारी देने से लेकर तमाम तरह के समूह बाधा बनते हैं।
किसान कानून को ध्यान में रखकर देखें तो तुलनात्मक रूप से किसानों का समूह बेहद छोटा था और अगर रिफॉर्म लागू हो जाता तो इससे उन सभी को नुकसान होने की आशंका थी। वहीं दूसरी ओर इस रिफॉर्म के चलते किसानों पर इसका असर तुरंत दिखने लगता, जबकि इसके फायदों का असर लोगों पर दिखने में एक लंबा वक्त लगता। यहां सवाल ये है कि आखिर कितने लोग ऐसे फैसलों के महत्व देंगे, जिनका फायदा आज नहीं बल्कि भविष्य में मिलेगा? लोग अपने आज में ही तमाम समस्याओं से जूझ रहे हैं तो ऐसे में भविष्य के फायदों के लिए आवाज कौन उठाए। ऐसा अक्सर होता है कि जिन्हें किसी पॉलिसी से फायदे मिलने वाला होता है, उन्हें इस बात की भनक भी नहीं लग पाती है कि इससे उन्हें फायदा होगा।
एक नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री गैरी बेकर (Gary Becker) कहते हैं कि एक पॉलिटिकल प्रोसेस में कई छोटे और संगठित ग्रुप होते हैं, जो फायदा उठा लेते हैं, जबकि अधिकतर लोगों को नुकसान होता है। ऐसे में अधिकतर लोगों को फायदा दिलाने के लिए सरकारों को लोगों तक अपनी बात को सही से पहुंचाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। हर कदम पर सरकारों को यह ध्यान रखना पड़ता है कि कुछ छोटे समूह सारे रिफॉर्म को हाइजैक ना कर लें।
1990 के दशक में आंध्र प्रदेश सरकार ने भी एक रिफॉर्म किया था और कई तरह की सब्सिडी को खत्म किया था। उस वक्त आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे चंद्रबाबू नायडू। उनकी सरकार ने एक वाइट पेपर लाने का फैसला किया था और लोगों को समझाने की कोशिश की कि क्यों सरकार को इतना सख्त कदम उठाना पड़ रहा है। उस वक्त तो लगा था कि यह सब सिर्फ समय की बर्बादी है, क्योंकि लोग सरकार की बात को नहीं समझेंगे और समर्थन भी नहीं करेंगे, क्योंकि इससे उन्हें सीधा नुकसान होगा। हालांकि, नायडू की सरकार ने सब कुछ बहुत ही अच्छी तरह से मैनेज किया। उन्होंने लोगों को समझाया कि कैसे सब्सिडी में जाने वाला पैसे अच्छी सड़क और साफ पानी की सुविधा देने के लिए खर्च किया जा सकता है।